Thursday, 21 November 2013

iSLAM m jaBARDASTI NAHI ?

इस्लाम में जबरदस्ती नहीं।

इस्लाम पर ये इल्ज़ाम है कि इस्लाम तलवार के जोर से फैला। इसको मानने वाले दूसरों को मबूर करते हैं कि वे इस र्ध्मा को अपना लें वरना उनकी गर्दन अलग कर दी जायेगी। आमतौर पर जिहाद से मुताल्लिक कुछ आयतों को आध्राा बनाकर इस्लाम को अशांति फैलाने वाला मज़हब कह दिया जाता है। खास तौर से सूरे तौबा की कुछ आयतें लोगों को बेचैन करती रहती हैं। जो इस तरह हैं,

‘अल्लाह की तरफ से और उसके रसूल की तरफ से उन मुशरिकीन के अहद से दस्तबरदारी है, जिन में तुमने अहद रखा था।’ - सूरतुल तौबा आयत (1)

‘सो जब अश्हूर-हुर्म गुज़र जायें तो इन मुशरिकीन को जहाँ पाओ मारो और पकड़ो और बांधो और दाँव घात के मौकों पर ताक लगाकर बैठो। फिर अगर तौबा कर ले और नमाज पढ़ने लगे और जकात देने लगे तो इन का रास्ता छोड़ दो।’ - सूरतुल तौबा आयत (9)

‘ऐ ईमानवालों, अपने बापों को, अपने भाईयों को अपना रफीक मत बनाओ अगर वह कुफ्र को बमुकाबिला ईमान अज़ीज़ रखें और तुममें से जो शख्स इनके साथ रफाकत रखेगा, सो ऐसे लोग बड़े नाफरमान हैं।’ - सूरतुल तौबा आयत (23)

‘लोग चाहते हैं कि अल्लाह के नूर को अपने मुंह से फूंक मारकर बुझा दें, हालांकि अल्लाह तआला बावजूद इसके अपने नूर को कमाल तक पहुंचा दे, मानेगा नहीं, गो काफिर कैसे ही नाखुश हों। - सूरतुल तौबा आयत (32)

हकीकत ये है कि सूरे तौबा की ये आयतें कुछ खास सिचुएशन के लिये हैं जबकि इस्लाम के मानने वालों पर दुश्मनों का हमला हो और मुकाबले के सिवा कोई और चारा न हो।

इस्लाम यह अनुमति अवश्य देता है कि अगर ग़ैर-मुस्लिम मुसलमानों के खिलाफ युद्ध का एलान करें, उनको उनके घर से बेदखल कर दें अथवा इस तरह का कार्य करने वालो की मदद करें, तो ऐसी हालत में मुसलमानों को अनुमति है ऐसा करने वालो के साथ युद्ध करे और उनकी संपत्ति जब्त करें.

[60:8] अल्लाह तुम्हे इससे नहीं रोकता है कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और ना तुम्हे तुम्हारे अपने घर से निकाला. निस्संदेह अल्लाह न्याय करने वालों को पसंद करता है.

[60:9] अल्लाह तो तुम्हे केवल उन लोगो से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हे तुम्हारे अपने घरों से निकला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की. जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम हैं.

कुरआन की शान्ति का पैगाम देती हुई कुछ आयतें।

(2:256) दीन में किसी तरह की ज़बरदस्ती नहीं। क्योंकि हिदायत गुमराही से अलग (ज़ाहिर) हो चुकी है तो जिस शख्स ने झूठे खुदाओं (बुतों) से इंकार किया और अल्लाह ही पर ईमान लाया तो उसने वो मज़बूत रस्सी पकड़ी है जो टूट नहीं सकती और अल्लाह सब कुछ समझता और जानता है।

(2:272) (ऐ रसूल) उनको मंजिले मकसूद तक पहुंचाना तुम्हारा काम नहीं (तुम्हारा काम सिर्फ रास्ता दिखाना है) मगर हां अल्लाह जिसको चाहे मंजिले मकसूद तक पहुंचा दे।

(7:56) अपने परवरदिगार से गिड़गिड़ाकर और चुपके चुपके दुआ करो वह हद से तजाविज़ करने वालों को हरगिज़ दोस्त नहीं रखता और ज़मीन में असलाह के बाद फसाद न करते फिरो और (अज़ाब) के खौफ से और (रहमतों) की आस लगाकर अल्लाह से दुआ मांगो।

(2:11-12) और जब उनसे कहा जाता है कि मुल्क में फसाद न करते फिरो तो कहते हैं कि हम तो सिर्फ अस्लाह करते हैं। खबरदार हो जाओ बेशक यही लोग फसादी हैं लेकिन समझते नहीं।
(88:21-22) तो तुम नसीहत करते रहो। तुम तो बस नसीहत करने वाले हो। तुम कुछ उनपर दरोगा तो हो नहीं।

(109:5-6) और जिसकी मैं इबादत करता हूं उसकी तुम इबादत करने वाले नहीं। तुम्हारे लिये तुम्हारा दीन मेरे लिये मेरा दीन।

(9:6) और (ऐ रसूल) अगर मुशरिकीन में से कोई तुमसे पनाह मांगे तो उसको पनाह दो यहाँ तक कि वह अल्लाह का कलाम सुन ले फिर उसे उसकी अमन की जगह पर वापस पहुंचा दो ये इस वजह से कि ये लोग नादान हैं।

(4-80) जिसने रसूल की इताअत की तो उसने अल्लाह की इताअत की और जिसने नाफरमानी की तो तुम कुछ ख्याल न करो (क्योंकि) हमने तुमको पासबान मुकर्रर करके तो भेजा नहीं।
(6-107) और अगर अल्लाह चाहता तो ये लोग शिर्क ही न करते और हमने तुमको उन लोगों का निगेहबान तो बनाया नही है और न तुम इनके जिम्मेदार हो।

(10-99, 10-100) और अगर तेरा परवरदिगार चाहता तो जितने लोग रूए ज़मीन पर हैं सबके सब ईमान ले आते तो क्या तुम जबरदस्ती करना चाहते हो! ताकि सबके सब ईमानदार हो जायें हालांकि किसी शख्स को ये अख्तियार नहीं कि बगैर अल्लाह की मर्जी ईमान ले आये और जो लोग अक्ल से काम नहीं लेते उन्ही लोगों पर अल्लाह गंदगी डाल देता है।

पहली बात तो यह कि इस्लाम दया और न्याय का धर्म है. इस्लाम के लिए इस्लाम के अलावा अगर कोई और शब्द इसकी पूरी व्याख्या कर सकता है तो वह है न्याय”. मुसलमानों को आदेश है कि ग़ैर-मुसलमानों को ज्ञान, सुंदर उपदेश तथा बेहतर ढंग से वार्तालाप से बुलाओ. ईश्वर कुरआन में कहता है (अर्थ की व्याख्या)

[29: 46] और किताबवालों से बस उत्तम रीति से वाद-विवाद करो – रहे वे लोग जो उनमे ज़ालिम हैं, उनकी बात दूसरी है. और कहो: “हम ईमान लाए उस चीज़ पर जो हमारी और अवतरित हुई और तुम्हारी और भी अवतरित हुई. और हमारा पूज्य और तुम्हारा पूज्य अकेला ही है और हम उसी के आज्ञाकारी हैं.”
[9:6] और यदि मुशरिकों (जो ईश्वर के साथ किसी और को भी ईश्वर अथवा शक्ति मानते हैं) में से कोई तुमसे शरण मांगे, तो तुम उसे शरण दे दो, यहाँ तक कि वह अल्लाह की वाणी सुन ले. फिर उसे उसके सुरक्षित स्थान पर पंहुचा दो; क्यों वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें ज्ञान नहीं है.

इससे साबित होता है कि इस्लाम और ईमान ज़बरदस्ती का सौदा नहीं है। और इसके लिये कोई किसी को मजबूर नहीं कर सकता। यहाँ तक कि अल्लाह के रसूल भी नहीं। अत: ये इल्जाम सरासर गलत है कि इस्लाम तलवार के जोर से फैला। 01
— in Kibungo, Rwanda.

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